Udham Singh: आज से सौ साल पहले 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर स्थित जलियांवाला बाग में जो घटना घटी उसने भारत को एक ऐसा जख्म दिया, जिसका दर्द सुनकर आज भी रूहे काप जाती है. रॉलेट एक्ट के विरोध में जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण तरीके से सभा हो रही थी. इस सभा से तिलमिलाए पंजाब प्रांत के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिगेडियर जनरल डायर को आदेश दिया कि सभा कर रहे भारतीयों को सबक सिखाओ.
इस पर उसी के हमनाम जनरल डायर ने सैकड़ों सैनिकों के साथ सभा स्थल जलियांवाला बाग में निहत्थे, मासूम व निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए. जनरल डायर ने खुद अपने एक संस्मरण में लिखा था, ‘1650 राउंड गोलियां चलाने में छह मिनट से ज्यादा ही लगे होंगे.’ इस गोलीबारी में, सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 337 लोगों के मरने और 1500 के घायल होने की बात कही जाती है. सही आंकड़ा क्या है, वह आज तक सामने नहीं आ पाया है.
अंग्रेजों की खूनी गोलियों से बचने के लिए सैकड़ों लोग बाग में स्थित कुएं में कूद गए. इसमें पुरुषों के अलावा महिलाएं और बच्चे भी थे. जब बाग में गोलीबारी हो रही थी, एक बालक उधम सिंह भी वहां मौजूद था.उसने अपनी आंखों के सामने अंग्रेजों के इस खूनी खेल को देखा था. उसी सभा में उधम सिंह अपने अन्य साथियों के साथ पानी पिलाने का काम कर रहे थे. उन्होंने उसी बाग की मिट्टी को हाथ में लेकर इसका बदला लेने की कसम खाई थी.
21 साल बाद 13 मार्च 1940 को उधम सिंह ने अंग्रेजों से इसका बदला लिया
Udham Singh: उधम सिंह ने जो किया वह इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और जीवन का संघर्ष इतना बड़ा था कि ऐसी स्थिति में कोई इस तरह का फैसला लेने की सोच नहीं सकता था. क्रान्तिवीर शहीद उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरुर जिले के सुनाम गांव में हुआ था. उधम सिंह जब दस साल के हुए तब तक उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी.
इसके बाद उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए. तमाम क्रांतिकारियों के बीच उधम सिंह एक अलग तरह के क्रांतिकारी थे. सामाजिक रूप में निचले पायदान से ताल्लुक रखने के कारण उनको इसकी पीड़ा पता थी. वह जाति और धर्म से खुद को मुक्त कर देना चाहते थे. यही वजह है कि उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘राम मोहम्मद आजाद सिंह’ रख लिया था, जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है. धार्मिक एकता का संदेश देने वाले वो प्रमुख क्रान्तिकारी थे.
अनाथ होने के बावजूद भी विचलित नहीं हुए वीर उधम सिंह
Udham Singh: देश की आजादी तथा माइकल ओ डायर को मारने की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए लगातार कोशिश करते रहे. उधम सिंह ने अपने काम को अंजाम देने के लिए कई देशों की यात्रा भी की. इसी रणनीति के तहत सन् 1934 में उधम सिंह लंदन पहुंचे. आजादी के दीवाने क्रान्तिवीर उधम सिंह को जिस मौके का इंतजार था, वह मौका उन्हें जलियांवाला बाग नरसंहार के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओ डायर लंदन के काक्सटेन सभागार में एक सभा में सम्मिलित होने गया.
इस महान वीर सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उसमें वहां खरीदी रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर प्रवेश कर गए. मोर्चा संभालकर उन्होंने माइकल ओ डायर को निशाना बनाया और गोलियां दागनी शुरू कर दीं, जिससे वो वहीं ढेर हो गया.
माइकल ओ डायर की मौत के बाद ब्रिटिश हुकुमत दहल गई
Udham Singh: फांसी की सजा से पहले लंदन की कोर्ट में जज एटकिंग्सन के सामने जिरह करते हुए उधम सिंह ने कहा था- ‘मैंने ब्रिटिश राज के दौरान भारत में बच्चों को कुपोषण से मरते देखा है, साथ ही जलियांवाला बाग नरसंहार भी अपनी आंखों से देखा है. अतः मुझे कोई दुख नहीं है, चाहे मुझे 10-20 साल की सजा दी जाये या फांसी पर लटका दिया जाए. जो मेरी प्रतिज्ञा थी अब वह पूरी हो चुकी है. अब मैं अपने वतन के लिए शहीद होने को तैयार हूं.
फांसी की सजा की खबर सुनने के बाद आजादी के दीवाने इस क्रान्तिवीर ने ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाकर देश के लिए हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की अपनी मंशा जता दी. 31 जुलाई 1940 को ब्रिटेन के पेंटनविले जेल में उधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया, जिसे भारत के इस वीर सपूत ने हंसते-हंसते स्वीकार किया.
जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद भी महात्मा गांधी ने जनरल डायर को क्षमा क्यों किया
गांधी का कहना था कि ‘जनरल डायर के काम आना और निर्दोष लोगों को मारने में उसकी मदद करना मेरे लिए पाप समान होगा. पर, यदि वह किसी रोग का शिकार है तो उसे वापस जीवन देना मेरे लिए क्षमा और प्यार का अभ्यास होगा.’ (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी (सीडब्ल्यूएमजी), खंड 18, पृ. 195, ‘रिलिजियस ऑथिरिटी फॉर नॉन–कोऑपरेशन’, यंग इंडिया, 25 अगस्त 1920)
गांधी ने यहां तक लिखा कि डायर ने ‘मात्र कुछ शरीरों को नष्ट किया, पर कइयों ने एक राष्ट्र की आत्मा को मारने का प्रयास किया.’ उन्होंने कहा कि ‘जनरल डायर के लिए जो गुस्सा जताया जा रहा है, मैं समझता हूं, काफी हद तक उसका लक्ष्य गलत है.’ (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी (सीडब्ल्यूएमजी, खंड 18, पृ. 46, ‘रिलिजियस ऑथिरिटी फॉर नॉन–कोऑपरेशन’, यंग इंडिया, 14 जुलाई 1920).
महापुरुषों के साथ भी भेदभाव
भारत में आम आदमी को तो छोडिए महापुरुषों के साथ भी भेदभाव सदियों से होता आया है और आज भी हो रहा है. ऐसे ही भेदभाव का शिकार शहीदे आजम उधम सिंह जी भी हुए . ऐसे महापुरुष, क्रान्तिकारी, वीर सपूत की उपेक्षा पिछले 70 वर्षों से की जा रही है. सरकारों को तो चाहिए था कि उनके नाम से शहीद स्मारक, विद्यालय, अस्पताल, संग्रहालय, पुस्तकालय, शहर का नाम, मार्ग का नाम, डाक टिकट, सरकारी योजनाएं, इत्यादि जारी करके उनको सच्ची श्रद्धांजलि दे. किन्तु ऐसा हुआ नही है जैसा कि अन्य क्रान्तिकारी शहीदों के नाम से हुआ है.
शायद ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योकिं आजादी के बाद अबतक 70 वर्षों में जितने लोग भी सरकार में आए सबकी आंखो पर जातिवादी का चश्मा लगा है. भारत के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने वाले शहीदे आजम उधम सिंह जी के परिवार के लोग आज दो वक्त की रोटी के लिए मजदूरी करने पर मजबूर हैं. और सरकार राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति का खेल रही है.