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Caste Census News : जाति जनगणना क्यों ज़रूरी है? जातिगत जनगणना से क्यों डरती है केंद्र सरकार? .. समझें पूरा गणित

जाति जनगणना (Caste Census) कराने के लिए बिहार सरकार द्वारा एलान के बाद अब केंद्र पर भी दबाव बनने लगा है, हालांकि केंद्र सरकार इसके पक्ष में नहीं है. यानी अब तक 1931 वाली जनगणना के आधार पर ही देश में जनता की हर तरह से गिनती की जाती है.

हमारे देश में अलग-अलग तरह की तमाम जातियां (Caste Census) और उनकी उपजातियां हैं, हालांकि इनकी संख्या कितनी हैं, किस जाति में कितने लोग हैं, इनकी आर्थिक स्थिति क्या है, ये फिलहाल निर्धारित नहीं है. साल 1931 से लेकर आज भी यही मुद्दा हमारे देश में विकास की ओर एक रोड़ा बना हुआ है. जिसमें सबसे ज्यादा विवाद पिछड़ा वर्ग को लेकर है.

बिहार सरकार कराएगी जातीय जनगणना

इसी वर्ग की संख्या को पुख्ता करने के लिए अलग अलग राज्य, केंद्र पर दबाव बनाते हैं, क्योंकि राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में वोट की गोलबंदी करने के लिए जातिगत पहचान का सहारा सबसे अधिक लेती हैं, इसके अलावा सभी जातियों के उत्थान और उनके वाजिब हक़ के लिए भी यह ज़रूरी होता है. लेकिन केंद्र की सत्ता में रहने वाली पार्टी कुछ-न-कुछ बहाना बनाकर हर बार इसे टाल जाती है.

जातीय जनगणना (Caste Census) को लेकर सबसे ज्यादा सरगर्मी बिहार और उत्तर प्रदेश में रहती है. नारा भी बुलंद रहता है कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी. इस समय उत्तर प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है तो वहां केंद्र से अलग जाकर यह मांग उठने का कोई सवाल ही नहीं है, लेकिन बिहार सरकार ने राज्य में जातीय जनगणना कराने का फैसला कर लिया है. और इसकी शुरुआत भी हो चुकी है.

पहले सर्वदलीय बैठक और फिर कैबिनेट की मीटिंग में सबकुछ तय करने के बाद यह ऐलान कर दिया गया है कि बिहार, कर्नाटक मॉडल की तर्ज पर सूबे में जातीय गणना को अंजाम देगा. इस महा अभियान पर सरकारी खजाने से 500 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे जो 9 महीने के भीतर सूबे की 14 करोड़ की आबादी की जाति, उपजाति, धर्म और संप्रदाय के साथ ही उसकी आर्थिक सामाजिक स्थिति का भी आकलन करेगा.

बड़ी बात ये है कि नीतीश कुमार के इस फैसले को भाजपा भी समर्थन देने को मजबूर दिखती है. अब भाजपा हाईकमान के पास इसके लिए क्या शर्त होगी ये तो आने वाला समय तय करेगा.

जातिगत जनगणना क्या है?

भारत में हर 10 साल में एक बार जनगणना (Caste Census) की जाती है. इससे सरकार को विकास योजनाएं तैयार करने में मदद मिलती है. किस तबके को कितनी हिस्सेदारी मिली, कौन हिस्सेदारी से वंचित रहा, इन सब बातों का पता चलता है. कई नेताओं की मांग है कि जब देश में जनगणना की जाए तो इस दौरान लोगों से उनकी जाति भी पूछी जाए.

इससे हमें देश की आबादी के बारे में तो पता चलेगा ही, साथ ही इस बात की जानकारी भी मिलेगी कि देश में कौन सी जाति के कितने लोग रहते है। सीधे शब्दों में कहे तो जाति के आधार पर लोगों की गणना करना ही जातीय जनगणना होता है.

जनगणना में रोड़ा कौन?

साल 2010 में जब भाजपा सत्ता में नहीं थी. संसद के भीतर भाजपा के दिवंगत नेता गोपीनाथ मुंडे जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर तर्क दे रहे थे. कह रहे थे कि अगर ओबीसी जातियों (Caste Census) की गिनती नहीं हुई तो उनको न्याय देने में और 10 साल लग जाएंगे. इसके बाद जब भाजपा सत्ता में आई, और तय समय के अनुसार 10 साल बाद 2021 में जनगणना होनी थी, लेकिन नहीं हुई.

तब इसी साल ससंद में भाजपा से एक सवाल किया गया कि 2021 की जनगणना जातियों के हिसाब से होगी या नहीं? नहीं होगी तो क्यों नहीं होगी. सरकार का लिखित जवाब आया. कहा कि सिर्फ एससी, एसटी को ही गिना जाएगा. यानी ओबीसी जातियों को गिनने का कोई प्लान नहीं है. कहने का मतलब ये है कि केंद्र की सत्ता में जो भी पार्टी होती है, वो जातीय जनगणना को लेकर आनाकानी करती ही है. विपक्ष में जब ये पार्टियां होती हैं तो जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाती हैं.

1931 में हुई थी जातिगत जनगणना

भारत में आख़िरी बार ब्रिटिश शासन के दौरान जाति के आधार पर 1931 में जनगणना (Caste Census) हुई थी. इसके बाद 1941 में भी जनगणना हुई लेकिन आंकड़े पेश नहीं किए गए. इसके बाद अगली जनगणना से पहले देश आज़ाद हो चुका था. यानी अब ये जनगणना 1951 में हुई, लेकिन इस जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया.

कहने का मतलब ये है कि 1951 में अंग्रेजों की जनगणना नीति में बदलाव कर दिया गया जो कमोबेश अभी तक चल रहा है. इस जनगणना से पहले साल 1950 में संविधान लागू होते ही एससी और एसटी के लिए आरक्षण शुरू कर दिया था, कुछ साल बीते और पिछड़ा वर्ग की तरफ से भी आरक्षण की मांग उठने लगी.

1953 में बना काका कालेलकर आयोग क्या हैं?

आरक्षण के मामले में पिछड़ा वर्ग की परिभाषा कैसी हो, इस वर्ग का उत्थान कैसे हो, इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया. काका कालेलकर आयोग ने 1931 की जनगणना को आधार मानकर पिछड़े वर्ग का हिसाब लगाया. हालांकि काका कालेलकर आयोग के सदस्यों में इस बात को लेकर बहस थी, कि गणना जाति (Caste Census) के आधार पर हो या आर्थिक आधार पर, यानी ये आयोग इतिहास में महज़ एक काग़ज़ भरने तक ही सीमित रह गया.

अब साल था 1978, और देश में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी वाली सरकार थी. इस सरकार ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा आयोग बनाया. लेकिन साल 1980 के दिसंबर तक जब मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी तब तक जनता पार्टी की सरकार जा चुकी थी. मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ही ज्यादा पिछड़ी जातियों की पहचान की.

पिछड़े वर्ग को  27 प्रतिशत आरक्षण देने की बात

कुल आबादी में 52 फीसदी हिस्सेदारी पिछड़े वर्ग की मानी गई. मंडल आयोग की तरफ से ये भी कहा गया कि पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए. हालांकि मंडल आयोग की सिफारिशों पर अगले 9 सालों तक कोई ध्यान नहीं दिया गया.

  • लेकिन साल 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की उस सिफारिश को लागू कर दिया जिसमें पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की मांग की गई थी. वीपी सिंह के इस फैसले के बाद बवाल हुआ, मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया.
  • जिसके बाद बारी थी 1992 में दिए गए इंद्रा साहनी के ऐतिहासिक फैसले की… जिसमें आरक्षण को सही माना गया लेकिन अधिकतम लिमिट 50 फीसदी तय कर दी गई.
  • अब साल था 2006… केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अंर्जुन सिंह ने मंडल पार्ट 2 शुरू कर किया, और इस मंडल आयोग की एक दूसरी सिफारिश को लागू कर दिया गया जिसमें सरकारी नौकरियों की तरह सरकारी शिक्षण संस्थानों, जैसे यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल कॉलेज में भी पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने पर मुहर लग गई. इस बार भी विवाद हुआ लेकिन सरकार अड़ी रही और ये लागू हो गया.
  • अब साल था 2010… कांग्रेस की सरकार थी और देश में जाति आधारित जनगणना की मांग उठने लगी. लालू प्रसाद यादव, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, गोपी नाथ मुंडे जैसे नेताओं ने खूब ज़ोर लगाकर इसकी मांग उठाई, हालांकि कांग्रेस इसके पक्ष में नहीं थी.
  • साल 2011 के मार्च महीने में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने जातीय जनगणना पर अपनी बात रखी और ये हवाला दिया कि जो लोग इस जनगणना में काम करते हैं, उनके पास इस तरह की ट्रेनिंग या अनुभव नहीं है. हालांकि लालू जैसे अपने सहयोगियों के दबाव में आकर कांग्रेस को जातीय गणना पर विचार करना पड़ा.

प्रणव मुखर्जी की अगुआई में एक कमेटी बनी

इसमें जनगणना के पक्ष में सुझाव दिए गए. इस जनगणना का नाम दिया गया सोशियो यानी इकॉनॉमिक एंड कास्ट सेन्सिस. सोशियो को पूरा करने में कांग्रेस ने 4800 करोड़ रुपये खर्च कर दिए. ज़िलावार पिछड़ी जातियों को गिना गया और इसका डाटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को दिया गया. जिसके कई साल बाद तक इस डेटा पर कोई बात नहीं हुई.

जब सरकार बदली तब थोड़ी बहुत सुगबुगाहट ज़रूर हुई और जातीय जनगणना के डेटा के क्लासिफिकेशन के लिए एक एक्सपर्ट ग्रुप बनाया गया. इस ग्रुप ने रिपोर्ट दी या नहीं, इसकी जानकारी अब तक नहीं आई है. कुल मिलाकर मोदी सरकार ने भी जाति के आंकड़ों को जारी करना मुनासिब नहीं समझा.

जातिगत जनगणना से क्यों डरती है केंद्र सरकार?

मान लीजिए जातिगत जनगणना होती है तो अब तक की जानकारी में जो आंकड़े हैं, वो ऊपर नीचे होने की पूरी संभावना है. जैसे ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत से घट जाती है तो एक नया विवाद हो सकता है, और मान लीजिए यह प्रतिशत बढ़ जाता है, जिसकी पूरी संभावना है तो सत्ता और संसाधन में हिस्सेदारी की और मांग उठेगी सरकारें शायद इस बात से डरती हैं.

चूंकि आदिवासियों और दलितों के आकलन में फ़ेरबदल होगा नहीं, क्योंकि वो हर जनगणना में गिने जाते ही हैं, ऐसे में जातिगत जनगणना में प्रतिशत में बढ़ने घटने की गुंज़ाइश अपर कास्ट और ओबीसी के लिए ही है. भाजपा की पैठ अभी सवर्ण जातियों में ज्यादा है. आरक्षण का दायरा बढ़ने पर सवर्ण जातियां विरोध करेंगी और सरकार की परेशानी बढ़ेगी.

क्षेत्रीय पार्टियां क्या कहती हैं?

क्षेत्रीय पार्टियों में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी समेत दर्जन भर से ज्यादा पार्टियों की मांग है कि बीजेपी ओबीसी की सही तादाद बताए और उसके बाद आरक्षण की 50 फ़ीसदी की सीमा को बढ़ाए. जानकार कहते हैं कि सही जनगणना होने से कोई नुक़सान नहीं होगा बल्कि तमाम जातियों के बारे में और उनकी स्थिति के बारे में पता चलेगा, और उन्हें उनका आरक्षण, समाज में स्थान, और अन्य संसाधनों में पूरा हक़ मिल सकेगा.

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