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बिहार का सबसे बड़ा जेल ब्रेक कांड: जिस पर बनी वेब सिरीज़ की हो रही है चर्चा: जानिए क्या हुआ था 13 नवंबर 2005 को?

द भारत: बिहार को लेकर ओटीटी पर आई एक और वेब सिरीज़ आजकल चर्चा में है. सुधीर मिश्रा की यह वेब सिरीज़ ‘जहानाबाद ऑफ़ लव एंड वार’ सोनी लिव पर रिलीज़ की गई है.

‘जहानाबाद ऑफ़ लव एंड वार’ साल 2005 में हुए ‘जहानाबाद जेल ब्रेक’ कांड पर आधारित है. उस वक़्त अपने साथियों को बाहर निकालने के लिए लगभग एक हज़ार माओवादियों ने रात के अंधेरे में जेल पर ही हमला कर दिया था.

बिहार में क़रीब दो दशक पहले चल रहे जातीय संघर्ष पर हाल में बनाई गई दूसरी वेब सिरीज़ है. इससे पहले ‘ख़ाकी द बिहार चैप्टर’ भी ऐसी ही एक सच्ची घटना पर बनाई गई थी, जिसने काफ़ी सुर्ख़ियां बटोरी थीं.

क्या हुआ था 13 नवंबर 2005 को?: 13 नवंबर रविवार का दिन था. रात क़रीब नौ बजे भारी संख्या में माओवादियों ने बिहार के जहानाबाद ज़िला मुख्यालय पर हमला बोल दिया था. जहानाबाद राजधानी पटना से महज़ 60 किलोमीटर दूर है.

मशीनगन, बम और आधुनकि हथियारों के साथ क़रीब एक हज़ार माओवादी चरमपंथियों ने जहानाबाद जेल पर हमला किया था. उन्होंने जेल में बंद कुछ माओवादी नेताओं को छुड़ा लिया था. प्रशासन ने हमले के बाद बताया था कि माओवादी मगध रेंज के एरिया कमांडर अजय कानू और अपने कुछ अन्य साथियों को जेल से भगाकर ले गए. उनका मूल मक़सद अजय कानू को ही रिहा कराना था.

अजय कानू के मुताबिक़ उनपर जहानाबाद में 1990 में हुई एक हत्या का आरोप था, लेकिन वो फ़रार चल रहे थे. कानू को 12 साल फ़रार रहने के बाद साल 2002 में पटना से गिरफ़्तार कर जहानाबाद जेल में रखा गया था. ज़िला प्रशासन के मुताबिक़ जेल पर हुए हमले के बाद जेल में बंद 658 क़ैदियों में से 341 फरार हो गए थे. इनमें क़रीब सौ अजय कानू के समर्थक और साथी थे, जो जेल में बंद थे.

इस घटना में जेल में बंद रणवीर सेना के एक कमांडर बीनू शर्मा उर्फ़ बड़े शर्मा की भी हत्या कर दी गई थी. रणवीर सेना ज़मींदारों के समर्थन वाली सेना थी, जिसकी सीधी लड़ाई माओवादियों से थी. इसके अलावा जेल ब्रेक में कम से कम तीन अन्य लोग भी मारे गए थे, जिनमें पुलिसवाले भी शामिल थे.

अजय कानू फ़िलहाल ज़मानत पर रिहा हो चुके हैं. इसी जेल ब्रेक से जुड़े मुकदमे की पेशी में पटना की एक विशेष अदालत में अजय कानू से हमारी मुलाक़ात हुई. अजय कानू ने बीबीसी को बताया, “मैंने ‘जहानाबाद ऑफ़ लव एंड वार’ वेज सिरीज़ देखी है. यह पूरी तरह से काल्पनिक कहानी है. इसमें उस वक़्त के जहानाबाद के हालात, वहां के लोग, वहां के समाज की कोई चर्चा नहीं है.”

अजय कानू का आरोप है कि वेब सिरीज़ को हिट कराने और पैसे कमाने के लिए ज़बरन गालियों का इस्तेमाल किया गया है. बुद्धिजीवी लोग इसे बिल्कुल पसंद नहीं करेंगे.

अजय कानू के मुताबिक़ वेज सिरीज़ में एक छात्रा और एक प्रोफ़ेसर की प्रेम कहानी कहां से आ गई यह नहीं पता. इसके अलावा उस समय तो क्या, आज भी जहानाबाद में लोग इस तरह से गालियां नहीं बकते हैं जैसा कि वेब सिरीज़ में दिखाया गया है.

यही नहीं उनका आरोप है कि वेब सिरीज़ में जहानाबाद की कोर्ट- कचहरी, थाना-पुलिस किसी को सही तरीके से चित्रित नहीं किया गया है. हमने उनसे पूछा कि क्या उन्हीं को बाहर निकालने के लिए ‘जहानाबाद जेल ब्रेक कांड’ हुआ था? इस सवाल पर उनका बस इतना कहना था कि जेल टूटा तो सभी लोग बाहर आ गए.

अजय कानू ख़ुद को एक राजनीतिक व्यक्ति मानते हैं. उनके मुताबिक़ माओवादी संगठन में एरिया कमांडर बहुत बड़ा पद नहीं होता है, संगठन में तीस, चालीस या पचास लोगों के ऊपर एक कमांडर होता है.

उस रात की दहशत: 13 दिसंबर 2005 को हुई जेल ब्रेक कांड के बाद जहानाबाद में हर तरफ दहशत का माहौल था. स्थानीय निवासी शत्रुंजय कुमार जहानाबाद जेल के पास ही किसी के घर हो रही पूजा से लौट रहे थे.

वो याद करते हैं, “हम लोग जेल से क़रीब दो किलोमीटर दूर रहते हैं. बम और गोलियों की आवाज़ सुनकर लगा कि किसी क्रिकेट मैच के बाद पटाखे चल रहे हैं. लेकिन थोड़ी ही देर में ही पता लग गया कि जेल पर हमला हुआ है.”

शत्रुंजय कुमार के मुताबिक़ इस दौरान पहले पुलिस लाइन पर हमला किया गया था, इस हमले का मक़सद पुलिस वालों के हथियार लूटना था, क्योंकि ज़्यादातर पुलिस वाले चुनाव की ड्यूटी पर थे.

सुबह से ही आम लोग यह जानने के लिए जेल की तरफ भागने लगे कि रात को आख़िर हुआ क्या था. इस घटना के बाद माओवादी उस रविवार की रात जेल का दरवाज़ा खुला छोड़ गए थे और वह सुबह तक खुला ही रहा. इसलिए कोई भी व्यक्ति जेल के अंदर आ और जा सकता था.

वरिष्ठ पत्रकार और उस वक़्त के बीबीसी संवाददाता मणिकांत ठाकुर इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए जहानाबाद गए थे. मणिकांत ठाकुर याद करते हैं, “जहानाबाद में प्रशासन और जेल प्रबंधन साफ़ तौर पर लचर दिख रहा था. वो लोग न तो इस तरह के ख़तरे को महसूस कर पाए थे और न ही इसे रोक पाए.”

मणिकांत ठाकुर के मुताबिक़, “उस दौर में माओवादी आंदोलन का केंद्र जहानाबाद था. वहां की जेल में कई बड़े माओवादी नेता बंद थे. फिर भी प्रशासन को इसकी भनक तक नहीं लगी, यह बहुत बड़ी असफलता थी.

दूसरी तरफ़ माओवादी मानते थे कि सामंतों और ज़मींदारों ने उनका शोषण किया है. वो मूल रूप से भूमि सुधार की मांग करते थे. माओवादियों का आरोप था कि सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर पा रही, इसलिए हम ज़बरन अपना हक़ लेंगे.

वहीं ज़मींदारों और ज़मीन मालिकों का आरोप भी सरकार के ऊपर था. उनका कहना था कि सरकार माओवादियों से उनकी रक्षा नहीं कर पा रही है. इसके लिए उन्होंने ख़ुद की निजी सेना बनाई थी. जिसमें ‘रणवीर सेना’ सबसे ताक़तवर मानी जाती थी.”इन दोनों हथियारबंद गुटों के बीच कई बार हिंसक संघर्ष भी हुआ था, जिनमें कई लोग मारे गए थे.

इसमें जहानाबाद के लक्ष्मणपुर-बाथे में हुआ हत्याकांड सबसे बड़ा था. यहां 30 नवंबर और एक दिसंबर, 1997 की रात को महिलाओं और बच्चों समेत दलित टोले के क़रीब 60 लोगों की हत्या कर दी गई थी. इसका आरोप रणवीर सेना पर लगा था. जबकि 25 जनवरी 1999 को बिहार में जहानाबाद ज़िले के ही शंकरबीघा गाँव में ‘रणवीर सेना’ ने महिलाओं और बच्चों समेत 23 लोगों की हत्या कर दी थी.

मणिकांत ठाकुर के मुताबिक़ दोनों ही पक्ष सरकार पर आरोप लगाते थे और उस ज़माने में बिहार में एक तरह से माओवादियों और रणवीर सेना की समानांतर सरकार चलती थी.

उनका मानना है कि जहानाबाद में माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले भी बहुत लोग थे. उनके मुताबिक़ जेल ब्रेक को देखकर लगता था कि माओवादियों को इसके लिए बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ी होगी. उस घटना और उसके बाद दोनों हथियारबंद गुटों की धमकियों के बाद जहानाबाद में भारी तनाव के हालात पैदा हो गए थे.

उस समय राज्य में प्रतिबंधित रणवीर सेना के प्रवक्ता शमशेर बहादुर सिंह ने बीबीसी संवाददाता रूपा झा को बताया था कि रणवीर सेना के चार सदस्यों को माओवादी उठाकर ले गए हैं.

राज्य सरकार ने क़रीब दस साल पहले ही रणवीर सेना पर प्रतिबंद लगा दिया था. उन्होंने कहा था कि रणवीर सेना ने वामपंथी चरमपंथियों के ख़िलाफ़ युद्धविराम कर रखा था लेकिन अब चौबीस घंटे के अंदर अगुवा किए गए सदस्यों को लौटा दें, नहीं तो इसके बाद वो हिंसा के रास्ते पर लौट आएंगे.

हालांकि अजय कानू का कहना है कि रणवीर सेना के किसी सदस्य को उठाकर ले जाने वाली बात ग़लत है. पुलिस का भी मानना है कि किसी व्यक्ति को ज़बरन जेल से उठाकर नहीं ले गए थे. दूसरी ओर माओवादी नेता एसडी मौर्या ने बीबीसी से कहा था, “अब हम छोटी मोटी घटनाओं से आगे जाना चाहते हैं और अब हम देश भर की जेलों से अपने साथियों को रिहा कराएँगे.”

जहानाबाद की गूंज दिल्ली तक: इस घटना ने पटना से लेकर दिल्ली तक सरकार और प्रशासन को हिला दिया था. देशभर में आमलोगों के बीच यह एक चर्चा का विषय बन गया था कि किस तरह से जहानाबाद घटना के बाद बिहार में सरकार की सत्ता ख़त्म कर दी गई थी.

बड़ी बात यह थी कि यह हमला ज़िला मुख्यालय की जेल पर हुआ था, न कि किसी दूर दराज़ के इलाक़े में. शत्रुंजय कुमार दावा करते हैं कि उस रात क़रीब 3 घंटे के लिए जहानाबाद पर सरकार का नियंत्रण ख़त्म हो गया था. फिर पटना से फ़ोर्स भेजी गई और आसपास चुनावी ड्यूटी पर तैनात अर्धसैनिक बलों को भी यहां भेजा गया था.”

दरअसल फ़रवरी 2005 में हुए विधानसभा चुनावों में बिहार में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. उसी के बाद राज्य में मार्च के महीने में राष्ट्रपति शासन लगा था. जहानाबाद जेल ब्रेक कांड के समय बिहार में फिर से विधानसभा चुनाव कराए जा रहे थे. उस वक़्त बुटा सिंह बिहार के राज्यपाल थे. इसलिए जहानाबाद जेल ब्रेक कांड के बाद केंद्र सरकार भी सक्रिय हो गई थी.

घटना के दो दिन बाद ही यानि 15 नवंबर को रोहतास के पुलिस अधिक्षक बच्चू सिंह मीणा को जहानाबाद भेजा गया था. वो पहले सिवान के भी एसपी रहे चुके थे और शहाबुद्दीन से उनकी भिडंत काफ़ी चर्चा में रही थी.

पुलिस, पब्लिक, पत्रकार- सब नाराज़ : जहानाबाद जेल ब्रेक कांड के बाद जेल के आसपास सोमवार सुबह से ही भारी संख्या में लोग इकट्ठा हो गए थे और प्रशासन के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी करने लगे. वहां हालात इतने ख़राब हो गए थे कि ख़बरें जुटाने पहुंचे पत्रकारों पर भी पुलिस ने लाठीचार्ज किया था, जिसमें कई पत्रकार घायल हो गए थे. इसके ख़िलाफ़ पत्रकारों ने नारेबाज़ी शुरू कर दी थी.

मणिकांत ठाकुर मानते हैं कि जेल ब्रेक से पुलिस की बहुत बदनामी हो गई थी. उन्हें लगता था यहां की जितनी रिपोर्टिंग होगी, उतनी बार उनकी नाकामी बाहर आएगी, इसलिए वो गुस्से में पत्रकारों को भी काम करने से रोक रहे थे.

उस वक़्त जहानाबाद में आम लोगों और पत्रकारों के अलावा पुलिस भी आंदोलन के मोड में आ गई थी. जहानाबाद जेल पर हमले के बाद स्थानीय पुलिस अधीक्षक सुनील कुमार को निलंबित निलंबित करने की घोषणा की गई थी. एसपी के निलंबन की ख़बर सुनते ही जहानाबाद में पुलिसकर्मी इस फैसले के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी करने लगे. उनका कहना था कि एसपी को बेवजह ‘बलि का बकरा’ बनाया जा रहा है.

कहां गए भागने वाले क़ैदी?:  जेल ब्रेक के बाद प्रशासन की तरफ से जहानाबाद और आसपास के इलाक़े में घोषणा कराई गई थी कि जेल से बाहर भागे लोग तीन दिन में वापस आ जाएंगे तो उनपर जेल से भागने का कोई केस दर्ज नहीं किया जाएगा.

इस ऐलान के एक हफ़्ते के अंदर ही क़रीब 70 फ़ीसदी क़ैदी वापस जेल आ गए थे. इनमें से कुछ लोग अब भी फ़रार हैं. जबकि अजय कानू को 4 फ़रवरी 2007 को पश्चिम बंगाल के टनकुपा से गिरफ़्तार किया गया था. वो तेरह साल तक पटना के बेउर जेल में बंद रहे फिर जनवरी 2020 में उन्हें ज़मानत पर रिहा किया गया. कानू ने जहानाबाद के ही एसएन सिंहा कॉलेज से 1986-88 बैच में बीए तक की पढ़ाई की है.

उनका कहना है कि पहले वो एबीवीपी के कॉलेज अध्यक्ष थे लेकिन बाद में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित हुए और 1990 से वामपंथी राजनीति करने लगे. पहले भी ग़रीबों, पिछड़ों से लिए काम करते थे अब भी करते हैं.

पुराने साथियों के बारे में अजय कानू का कहना है कि कुछ लोग लड़ाई में शहीद हो गए, कुछ जेल में ही हैं, कुछ की मौत हो गई जबकि कुछ अपनी रोज़ी-रोटी कमाने में लगे हुए हैं. अजय कानू के वकील मिथिलेश कुमार के मुताबिक़ जेल ब्रेक मामले में अब तक क़रीब 30 आरोपी अदालत से बरी हो चुके हैं.

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