National Politics: बिहार सरकार ने जातिवार सर्वे जारी कर दिया है. इस सर्वे के मुताबिक़ बिहार में अति पिछड़ा वर्ग 36.01% और पिछड़ा वर्ग 27.12% हैं. वहीं सवर्णों की आबादी 15.52% है. कहा जा रहा है कि इस सर्वे ने देश की राजनीति में फिर से समाजिक न्याय की बहस को तेज़ कर दिया है. ऐसे में भाजपा और उसकी थिंक टैंक आरएसएस की हिन्दू एकता वाली मुद्दों के आगे सामाजिक न्याय वाले मुद्दे कितने हावी हो पाएंगे.
अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू ने इस सर्वे के बाद बीजेपी और आरएसएस की चुनौतियों पर एक विश्लेषण छापा है. इस लेख के अनुसार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस ने पिछड़े तबके को साथ लाने की कोशिशों में साल 1983 में सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की थी. यहां संघ ने ‘समानता’ की जगह ‘समरसता’ शब्द चुना. पिछले 40 सालों से उत्तर भारत में जाति की राजनीति सद्भाव और समानता के आदर्शों के साथ ऊंच-नीच और न्याय के बीच जूझ रही है.
सद्भाव का मतलब न्याय हो ये ज़रूरी नहीं है, कभी-कभी न्याय विवादास्पद हो सकता है और हिंसा का कारण भी बन सकता है. ये भी ज़रूरी नहीं है कि सद्भाव का मतलब ऊंच-नीच या असमानता का अंत हो. आरएसएस और बीजेपी जो हिंदू एकता स्थापित करना चाहते हैं, उन्हें इन चुनौतियों से निपटना है.
आरएसएस का ये बयान भाजपा के लिए मुस्किल खड़े कर देता हैं
जब आरएसएस ने ये पहल शुरू की तो ये वही समय था. जब पिछड़ों की बात करने वाली और सामाजिक न्याय की वकालत करने वाली पार्टियां मज़बूत हो रही थीं. बीते 40 सालों में नेतृत्व और समय के संदर्भ में पिछड़ों की राजनीति को लेकर कई उतार-चढ़ाव देखे गए हैं. जब भी हिंदू एकता का नारा उछाला जाता है तो बीजेपी जीत जाती है. जब भी बात समाजिक न्याय की आती है तो बीजेपी को नुक़सान झेलना पड़ जाता है. साल 2015 में जब आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने जातिगत आरक्षण पर बयान दिया था तो बीजेपी को चुनाव हारना पड़ा था.
वही 2014 की जीत के साथ बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति (National Politics) में सभी जातियों में पहुँच हो गई है, ऐसा माना जाने लगा था लेकिन 2015 में बिहार में लगे झटके ने पार्टी की कमज़ोरी का संकेत दिया. संघ परिवार के केंद्र में जाति का मुद्दा हमेशा रहा है.
बीते महीने मोहन भागवत ने कहा था, “हमने अपने ही लोगों को सामाजिक व्यवस्था में पीछे रखा. हमने उनकी परवाह नहीं की और यह 2,000 वर्षों तक जारी रखा. जब तक हम उन्हें समानता नहीं देते, तब तक कुछ विशेष उपाय करने होंगे और आरक्षण उनमें से एक है. आरक्षण तब तक जारी रहना चाहिए जब तक ऐसा भेदभाव हो. हम संविधान में दिए गए आरक्षण का पूरा समर्थन करते हैं.”
राष्ट्रीय राजनीति (National Politics) में ढीली पड़ती क्षेत्रीय पार्टियों की पकड़
एक तरफ़ आरएसएस और बीजेपी पिछड़ों तक अपनी पकड़ मज़बूत बनाने के लिए काम कर रहे हैं तो और दूसरी ओर सामाजिक न्याय वाली पार्टियां इस तबके को अपने साथ बनाए रखने और अपने वादों को पूरा करने में संघर्ष कर रही हैं.
बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी समेत कई क्षेत्रीय पार्टियां एक-जाति, एक-परिवार वाली पार्टियां बन कर रह गई हैं. इन पार्टियों ने जब शुरुआत की थी तो पिछड़े तबके की कई जातियां इनके साथ थी लेकिन अब ये एक जाति में ही पैठ रखती हैं और ज्यादातर वो जातियां जो इसके अलावा इनके साथ थीं उन पर इन पार्टियों की पकड़ कमज़ोर पड़ी है.
सामाजिक न्याय के दायरे को बढ़ाते हुए नई पार्टियाँ उभरीं
सामाजिक न्याय के दायरे को बढ़ाते हुए नई पार्टियाँ उभरीं, उनमें से कई ने बीजेपी के साथ गठजोड़ किया. बीजेपी भले ही खुद को पिछड़ों के लिए सबसे बेहतरीन विकल्प बताती हो लेकिन ऐसा करते हुए भी वह अपने सवर्ण वोट बैंक लेकर काफ़ी सचेत रहती है. सवर्ण वोट बैंक के लिए बीजेपी की यही प्रतिबद्धता थी, जिसने आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत कोटा मुमकिन कराया.
इन सब के बीच, राहुल गांधी जातिगत न्याय की लड़ाई तेज़ कर दी है, ये वो मुद्दा है जिससे राहुल गांधी इतने सालों तक दूर रहे. बिहार में नीतीश कुमार सरकार के जाति सर्वे ने जाति की पूरी बहस को एक बार फिर राजनीति के केंद्र में ला दिया है. ये सर्वे बीजेपी की हायरार्की वाली राजनीति पर हमला है, जिसने 2024 के चुनाव का मूड सेट कर दिया है.