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Retired Justice Chittaranjan Das: मैं RSS का सदस्य था और हूं… रिटायर जस्टिस चितरंजन दास के भाषण पर विवाद क्यों?

कलकत्ता हाईकोर्ट के तीसरे सबसे सीनियर जज रहे जस्टिस चितरंजन दास (Retired Justice Chittaranjan Das) ने सोमवार को अपने कार्यकाल के आखिरी दिन विदाई भाषण में जिस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की अपनी सदस्यता का जिक्र किया, वह न्यायाधीश पद के साथ जुड़ी गरिमा और संवेदनशीलता से वाकिफ किसी भी शख्स को हैरान कर सकता है. उन्होंने बताया कि वह न केवल अतीत में इस संगठन के सदस्य रहे हैं बल्कि अब रिटायरमेंट के बाद अगर संगठन उन्हें कोई उपयुक्त काम सौंपता है तो उसे खुशी-खुशी अंजाम देंगे.


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  1. अनिल कुमार ( बसपा )
  2. सुधाकर सिंह (राजद )
  3. मिथलेश तिवारी (भाजपा )
  4. ददन पहलवान ( निर्दलीय )
  5. आनंद मिश्र ( निर्दलीय )

वैचारिक स्वायत्तता

हालांकि यह दलील दी जा सकती है कि RSS कोई प्रतिबंधित संगठन नहीं है. यह भी कि देश के हर नागरिक को वैचारिक स्वतंत्रता हासिल है और न्यायाधीश भी एक व्यक्ति के रूप में किसी विचारधारा को पसंद या नापसंद कर सकते हैं. मगर गौर करने की बात यह है कि जस्टिस दास (Retired Justice Chittaranjan Das) ने यह खुलासा घर-परिवार या मित्रों-रिश्तेदारों के बीच व्यक्तिगत हैसियत से नहीं बल्कि कार्यकाल के आखिरी दिन बाकायदा कलकत्ता हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ के सामने किया.

न्यायिक बिरादरी को निराशा

देश के एक हाईकोर्ट में बतौर जज 15 साल बिता चुके किसी शख्स से यह उम्मीद तो होती ही है कि वह न केवल अपने कार्य की गंभीरता को समझेगा बल्कि उसके लिए जिस वैचारिक गहराई और परिपक्वता की जरूरत होती है, उसे भी महसूस करेगा. अफसोस की बात है कि जस्टिस दास के इस भाषण ने इन दोनों मोर्चों पर देश के नागरिकों को ही नहीं दुनिया भर में फैली न्यायिक बिरादरी को भी निराश किया है.


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पूर्वाग्रहों का सवाल

यह भाषण कितना कमजोर था, इसका अहसास इसके कुछ अंशों पर एक नजर डालने से ही हो जाता है. मिसाल के तौर पर, इस भाषण में जस्टिस दास खुद अपनी तारीफ करते हुए कहते हैं कि उन्होंने कभी किसी के लिए किसी तरह का पूर्वाग्रह नहीं रखा. अब देश के एक प्रतिष्ठित हाईकोर्ट के इतने वरिष्ठ जज से यह जानने की अपेक्षा गलत नहीं कही जाएगी कि पूर्वाग्रह कोई ऐसी चीज नहीं है, जो जानबूझकर रखी या न रखी जाए. पूर्वाग्रहों से मुक्ति अपनी चेतना का स्तर ऊपर उठाने के हमारे निरंतर प्रयासों का परिणाम होता है, लेकिन किसी भी खास बिंदु पर कोई व्यक्ति अपने पूर्वाग्रहों को लेकर सौ फीसदी आश्वस्त नहीं हो सकता. इसका पता तब चलता है जब दूसरे लोग इस ओर हमारा ध्यान खींचते हैं.

अतीत में विवाद

यह अकारण नहीं कि जस्टिस दास के फैसले में निहित पूर्वाग्रह को लेकर अतीत में विवाद हो चुके हैं. उदाहरण के लिए, उनकी अगुआई वाली एक खंड पीठ के इसी साल दिए एक फैसले को गलत करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘जजों का काम कानून और तथ्यों के आधार पर फैसला देना है, उपदेश देना नहीं.

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