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Battle of Chausa : शेरशाह और हुमयू के बीच हुई चौसा की लड़ाई ने हिला दी थी मुगल साम्राज्य की नीव, आज ही के दिन 26 जून को हुवा था चौसा का ऐतिहासिक युद्ध

15वीं सदी की वो काली रात, तारीख 26 जून 1539 ई. को गंगा व कर्मनाशा नदी के संगम पर हुई चौसा की लड़ाई (Battle of Chausa) में  मुगल शासक व अफगानी शासक के बीच हुवे युद्ध ने बक्सर (Buxar) के चौसा (Chausa) का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित कर दिया. और इसक साथ ही भारतीय इतिहास में बादशाहियत का एक नया युग का आगाज हुवा.

बक्सर से महज 10 किलोमीटर पश्चिम गंगा व कर्मनाशा नदी के संगम पर बसे चौसा मैदान (Battle of Chausa) पर आज ही के दिन 26 जून 1539 ई. में हुए महज कुछ घंटे की युद्ध में विजेता के तौर पर उभर रहे मुगल सम्राट हुमायूं (Humayun) को शेरशाह (Sher shah Suri) की गुरिल्ला युद्ध ने भागने को मजबूर कर दिया. और वह रात मुगल सम्राज्य के लिए एक काली रात बन गई. मुगल बादशाह हुमायूं (Humayun) और मामूली चुनार राज्य का अफगानी शासक शेरशाह (Shershah) के बीच हुए युद्ध में हुमायूं की हार हुई.

हुमायूँ और शेरशाह (Shershah) की बीच वर्चस्व की लड़ाई

मुगल सम्राट हुमायूं (Humayun) का सेनापति हिन्दूबेग पर कब्जा कर वहां से अफगान सरदारों को भगा देना चाहता था, तो वहीं दूसरी तरफ अफगान भी पूरे भारत में सिर्फ अपना कब्जा जमाने चाहते थे. ऐसी स्थिति में अपने-अपने राज्य की विस्तार नीति को लेकर चलाए गए विजय अभियानों के दौरान मुगलों और अफगानों के बीच जंग छिड़ गई और मुगल शासक हुमायूं (Humayun) एवं अफगान सरदार शेरशाह सूरी (Sher shah Suri) एक-दूसरे के प्रबल दुश्मन बन गए.

वहीं जब मुगल सम्राट हुमायूं (Humayun) आपने साम्राज्य के विस्तार के लिए अन्य क्षेत्रों पर नजर टिकाए हुवे थे तब अफगानों की गतिविधियों पर कोई मुगल ध्यान नहीं दे रहा था. जिनका शेरशाह सूरी (Sher shah Suri)ने बाकायदा फायदा उठाया और आगरा, कन्नौज, जौनपुर, समेत बिहार पर कपना कब्जा जमा लिया एवं बंगाल के सुल्तान पर आक्रमण कर बंगाल के कई बड़े किले और गौड़ क्षेत्र में अपना अधिकार जमा लिया.

कुशल कूटनीति व गोरिल्ला यूद्ध की बदौलत शेरशाह ने फतेह की चौसा का युद्ध

शेरशाह (Sher shah Suri)के ये बढ़ते कदम हुंमायूं (Humayun) को जब बर्दाश्त नहीं हुई तब दोनों के बीच संघर्ष छिड़ गया. शेरशाह (Sher shah Suri)पराक्रमी होने के साथ-साथ एक कूटनीतिज्ञ शासक भी था, जिसने अपना एक दूत भेजकर मुगलों की सारी कमजोरियों का पता लगा लिया था और मुगलों से युद्ध के लिए सही समय का इंतजार करने तक मुगलों को शांति रुप से संधियों में उलझाए रखा था.

फिर अचानक 25 जून, 1539 में उत्तर प्रदेश और बिहार बॉर्डर के पास कर्मनाशा नदी के किनारे चौसा (Battle of Chausa) नामक एक कस्बे के पास शेरशाह सूरी ने मुगलों की सेना पर मध्य रात्री में हो रही बारिश के बीच अचानक हमला कर दिया.


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25 जून 1539 की वह रात मुगल सम्राज्य के लिए बन गई थी काली रात

25 जून की आधी रात जब मुगलों की सेना पर शेरशाह (Sher shah Suri)ने हमला किया तब हुमायूँ (Humayun) की सेना को इसकी भनक तक नहीं थी कि इस काली रात में सूरी उनसे से दो दो हाथ करने वाला हैं. इस दौरान जब शेरशाह (Sher shah Suri) की सेना ने हमला बोला तब हुमयू (Humayun) की सेना लड़ाई के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होने के कारण उसके पास अपनी जान बचाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा और सभी सैनिक आधी रात गंगा नदी में कूद पड़ें.

वही सैकड़ों मुगल सैनिक अफगान सैनिकों के तलवार के आग नतमस्तक हो गए. ऐसे में मुगल सेना का काफी नुकसान हुआ और इस बीच मुगल सम्राट हुमायूं (Humayun) कमजोर पड़ गया, 25 जून 1539 की वो रात मुगलों के लिए काली रात बनकर आई थी. सब कुछ खोने के बाद हुमायूं (Humayun) भी युद्ध भूमि छोड़कर गंगा में कूदकर भाग निकला तथा किसी तरह एक भिश्ती की मदद से अपनी जान बचाई. और इस तरह अपनी कुशल कूटनीति और गोरिल्ला यूद्ध के चलते शेरशाह सूरी (Sher shah Suri) की चौसा के युद्द (Battle of Chausa) में जीत हुई.

चौसा का निजाम भिस्ती जो एक दिन के लिए बना दिल्ली का बादशाह

इतिहास के पन्ने में स्वर्णाक्षरों में दर्ज महज कुछ घंटे की युद्ध ने चौसा (Battle of Chausa) के एक मामूली निजाम भिस्ती को चौबीस घंटे के लिए दिल्ली सल्तनत का ताज पहना दिया. और यह तब हुवा जब 1539ई० में हुमायूं और शेरशाह के बीच चौसा की लड़ाई हुई. इस लड़ाई में गोरिल्ला युद्ध में पारंगत शेरशाह की सेना हुमायूं (Humayun) पर भारी पड़ गई. और मुगल बादशाह को अपनी जान बचाने के लिए उफनती गंगा में कूदना पडा.

युद्ध में लड़कर थक चुके हुमायूं गंगा नदी में डूबने लगा तभी नदी में मौजूद चौसा के निजाम भिस्ती की नजर एक डूबते हुए व्यक्ति पर पड़ी. उसने अपनी जान पर खेलकर मशक के सहारे डूबते हुए हुमायूं को गंगा से पार कराया. तब उसे क्या पता था कि जान बचाने के बदले उसे एक दिन दिल्ली का तख्तोताज मिल जायेगा. इस यूद्ध में परास्त हुमायूं जब दोबारा दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो उसकी जान बचाने वाले चौसा के निजाम भिस्ती की याद आई और उसने निजाम भिस्ती को चौसा से बुलाकर एक दिन के लिए दिल्ली सल्तनत का बादशाह बना दिया.

निजाम भिस्ती ने चलवाया था चमड़े का सिक्का

24 घंटे के लिए मिली गद्दी के दरम्यान भिस्ती ने अनुठा फैसला लेते हुए चमड़े का सिक्का चलवा दिया. ये सिक्के आज भी पटना संग्रहालय समेत देश के अन्य म्यूजियमों में रखे हुए है. और बहादुरी व अनुठे निर्णय से चौसा के निजाम भिस्ती का नाम भारत के इतिहास के पन्ने में बादशाह के रुप में दर्ज हो गया. अजमेर शरीफ में ख्वाजा दरगाह के मुख्य द्वार के बगल में निजाम भिस्ती का मजार भी है जहाँ पर आज भी सलाना उर्स लगता है.

युद्ध के बाद बंगाल और बिहार का सुल्तान बना शेरशाह सूरी

चौसा के युद्ध में शेरशाह सूरी (Sher shah Suri)की जीत के बाद उसे बंगाल और बिहार का सुल्तान बनाया गया. इसके बाद ही उसने शेरशाह (Sher shah Suri)आलम सुल्तान-उल-आदित्य, की उपाधि धारण की. वही इस युद्ध के बाद अफगानों का प्रभुत्व भारत में काफी बढ़ गया और अफगानों ने आगरा समेत मुगलों के कई राज्यों पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया.

इस युद्ध में जीत की खुशी में शेरशाह (Sher shah Suri) ने अपने नाम के सिक्के ढलवाए, ”खुतबा” पढ़वाया और इसके साथ ही फरमान जारी किए. चौसा के युद्ध के बाद मुगलों की शक्ति कमजोर पड़ गई और मुगल सम्राट हुमायूं का लगभग पतन हो गया. इस युद्ध के बाद 1540 ईसवी में हुमायूं और शेरशाह के बीच में बलग्राम और कन्नौज का युद्ध हुआ और इस युद्द में भी हुंमायूं को हार का सामना करना पड़ा और भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.

शेरशाह सूरी का शासनकाल

शेरशाह (Sher shah Suri) ने अपने महज पांच वर्षो (1540ई से 1545ई) के शासनकाल में दिल्ली से पेशावर तक ग्रैंड ट्रंक रोड (GT ROAD) पुनः निर्माण, सरायखाने, वृक्षारोपण तथा सिक्कों का पहली बार प्रचलन किया जो आज भी भारत में विद्यमान है. वही राजस्व वसूली, भूमि पैमाईशी, संवाद सम्प्रेषण जैसी खोज का श्रेय अफ़गान शासक शेरशाह को ही जाता है.जो देश में आज भी लागू हैं.

सूरी का शासनकाल प्रशासनिक क्षमता, सैन्य क्षमता, युद्ध नीति में स्वयं नेतृत्वकर्ता, मानवता व भारतीय संस्कृति का परिचायक व प्रेरणा स्रोत माना जाता है.

तीन-तीन बादशाहों का उदय करने वाला चौसा

जिस ऐतिहासिक स्थल ने एक ऐसे बादशाह का उदय कराया जिसकी कार्य प्रणालीयां आज भी कायम है. अफसोस आज ऐसे बादशाह का उदय करने वाले इस सरजमीं को अभी तक उपेक्षित ही रखा गया है. ये अलग बात है कि चौसा गढ के गर्भ में कितने साक्ष्य दबे है इसको पता लगाने के लिए राज्य सरकार ने कला संस्कृति विभाग द्वारा यहाँ पर करोड़ों रुपये खर्च कर खुदाई का कार्य कराया गया.

खुदाई के दौरान खनन विभाग को चौसा में आज से करीब 5000 वर्ष पूर्व के मानव जीवन होने के अवशेष भी प्राप्त हुए है. मगर उसकी रिपोर्ट आज भी चंद फ़ाइलों में सिमटी हुई हैं. महज कुछ घंटे की ऐतिहासिक यूद्ध से तीन तीन बादशाहों (शेरशाह, हुमायूँ और निजाम भिश्ती) के बादशाहियत का गवाह यह युद्ध भूमि के सहेजकर रखने की जरुरत है. अन्यथा इसका वजूद इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जायेगा.

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