मोदी कैबिनेट ने बुधवार को आगामी जनगणना में जातिगत गणना (Caste Census) को शामिल करने का निर्णय लिया हैं. जातीय जनगणना को लेकर लंबे वक्त से विपक्षी दल मांग कर रहे थे. केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि यह कदम सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देगा, साथ ही नीति निर्माण में पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा. आखिर जातिगत जनगणना है क्या, और इसके क्या फायदे व नुकसान क्या हो सकते हैं? आइए समझते हैं.
क्या है जातिगत जनगणना?
जातिगत जनगणना (Caste Census) एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें देश की आबादी को उनकी जाति के आधार पर बांटा जाता है. भारत में हर दस साल में होने वाली जनगणना में आमतौर पर आयु, लिंग, शिक्षा, रोजगार और अन्य सामाजिक-आर्थिक मापदंडों पर डेटा इकट्ठा किया जाता है. हालांकि, 1951 के बाद से जातिगत डेटा को इकट्ठा करना बंद कर दिया गया था, ताकि सामाजिक एकता को बढ़ावा मिले और जातिगत विभाजन को कम किया जा सके. अब तक केवल देश में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की जनसंख्या का डेटा (Caste Census) इकट्ठा किया जाता है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और सामान्य वर्ग की जातियों का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.
केंद्रीय कैबिनेट का हालिया फैसला 2025 में होने वाली जनगणना में सभी जातियों के डेटा जुटाने की दिशा में एक बड़ा बदलाव है, यह फैसला सामाजिक-आर्थिक नीतियों को और प्रभावी बनाने के लिए लिया गया है, विशेष रूप से उन समुदायों के लिए जो इससे वंचित रहे हैं.
जातिगत जनगणना का इतिहास
भारत में जातिगत जनगणना (Caste Census) का इतिहास औपनिवेशिक काल से जुड़ा है. पहली जनगणना 1872 में हुई थी, और 1881 से नियमित रूप से हर दस साल में यह प्रक्रिया शुरू हुई. उस समय जातिगत डेटा इकट्ठा करना सामान्य था। हालांकि, आजादी के बाद 1951 में यह फैसला लिया गया कि जातिगत डेटा इकट्ठा करना सामाजिक एकता के लिए हानिकारक हो सकता है. इसके बाद केवल एससी और एसटी का ही डेटा इकट्ठा किया गया.
लेकिन पिछले कुछ सालों में सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया है. अब ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं की मांग काफी बढ़ गई है. ऐसे में जातिगत जनगणना की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी. 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) की थी, लेकिन इसके आंकड़े विसंगतियों के कारण सार्वजनिक नहीं किए गए. बिहार, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों ने स्वतंत्र रूप से जातिगत सर्वे किए, जिनके नतीजों ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया.
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विपक्षी दल, जैसे कांग्रेस, आरजेडी और सपा लंबे समय से इसकी मांग कर रहे थे. बीजेपी का सहयोगी दल जेडीयू भी जातीय जनगणना के पक्ष में था. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय का आधार बताते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में इसे प्रमुख मुद्दा बनाया था. क्षेत्रीय दलों का मानना है कि जातिगत आंकड़े नीति निर्माण में मदद करेंगे, जबकि केंद्र सरकार ने पहले इसे प्रशासनिक रूप से जटिल और सामाजिक एकता के लिए खतरा माना था.
जातिगत जनगणना के क्या हो सकते हैं फायदे?
जातिगत जनगणना के समर्थकों का मानना है कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है. उनका कहना है कि जातिगत आंकड़े सरकार को विभिन्न समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे. उदाहरण के लिए, यह पता लगाया जा सकता है कि कौन सी जातियां शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य सेवाओं में सबसे ज्यादा वंचित हैं. इससे कल्याणकारी योजनाओं को और प्रभावी बनाया जा सकता है.
इसके अलावा ओबीसी और अन्य वंचित समुदायों की सटीक जनसंख्या के अभाव में, आरक्षण नीतियों को लागू करना और संसाधनों का उचित वितरण करना मुश्किल रहा है. मंडल आयोग (1980) ने ओबीसी की आबादी को 52% माना था, लेकिन यह अनुमान पुराने डेटा पर आधारित था. नए आंकड़े आरक्षण की सीमा और वितरण को और पारदर्शी बना सकते हैं.
जातिगत जनगणना से उन समुदायों की पहचान हो सकेगी जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं. जातिगत डेटा सामाजिक असमानताओं को उजागर करेगा, जिससे सरकार और समाज को इन मुद्दों को संबोधित करने का अवसर मिलेगा. उदाहरण के लिए अगर किसी विशेष जाति की आय या शिक्षा का स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी कम है, तो इसे सुधारने के लिए नीतियां बनाई जा सकती हैं.