राज्यसभा का टिकट कटने और पूर्व केंद्रीय मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद बिहार (Bihar Politics) में RCP सिंह पर गहमा गहमी है. JDU में करीब-करीब साइडलाइन हो चुके हैं. हालांकि, CM नीतीश कुमार के वह पहले सिपहसालार नहीं हैं जिन्हें अर्श से फर्श पर उतारा गया हो.
इनसे पहले जिन लोगों को उन्होंने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया उनको बाहर भी इसी तरह किया गया. अब चाहे जॉर्ज फर्नांडिस हो या शरद यादव, जो भी उनके राह से भटका वह पार्टी से बाहर हो गया.
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खिलाफ चलने वालों की खैर नहीं
नीतीश कुमार की आदत रही है कि पार्टी या सरकार में इनसे खिलाफ चलने वालों को देर सबेर राजनीतिक रुप से निपटा ही देते हैं. उनका राजनीतिक स्वभाव रहा है कि वो जिससे नाराज़ होते हैं, उससे बदला लेने में वह किसी भी हद तक चले जाते हैं. भले ही वह पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष जैसे पद पर ही क्यों न हो. उन्होंने JDU को अपने मुताबिक ही चलाया है. 2003 में जनता दल के बंटवारे के बाद जब जनता दल सेक्युलर और जनता दल यूनाइटेड बना तो JDU की जिम्मेदारी तीन नेताओं की थी. जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव और नीतीश कुमार. इसके बावजूद JDU को अपने मनमुताबिक ही चलाया.
JDU में हुई जॉर्ज फर्नांडिस की फजीहत
2003 में जॉर्ज फर्नांडिस को JDU का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था. जॉर्ज उस समय सर्वमान्य नेता थे, लेकिन चलती नीतीश कुमार की ही थी. 2004 में फर्नांडिस ने अपनी नजदीकी जया जेटली को राज्यसभा भेजने की बात कही तो मुख्यमंत्री ने इसे नाकार दिया. तब तक 2005 में वे बिहार (Bihar Politics) के CM बन चुके थे. बात यहीं तक नहीं रुकी. 2005 के विधानसभा चुनाव के दौरान भी दोनों में तनाव साफ दिख रहे थे. मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने 2006 में जॉर्ज फर्नांडिस की जगह शरद यादव को पार्टी की कमान सौंपी.
यही नहीं खराब स्वास्थ्य के आधार पर 2009 के लोकसभा चुनाव के टिकट से भी जॉर्ज फर्नांडिस को वंचित कर दिया. उन्हें निर्दलीय चुनाव मैदान में पराजय का मुंह देखना पड़ा. हालांकि, नीतीश ने कुछ महीनों के अंदर ही फिर उन्हें राज्यसभा भी भेज दिए. यह है नीतीश कुमार का पार्टी बैलेंस. इतना लचीला और इतना शख्त कही और नहीं मिलेगा देखने को.
शरद यादव ने राज्यसभा सदस्य रहते पार्टी छोड़ी
2006 में शरद यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर फर्नांडिस को साइड किया गया. शरद लगातार मधेपुरा से सांसद बनते रहे थे. राजनीतिक (Bihar Politics) रुप से वे भले मजबूत रहे हो, लेकिन मुख्यमंत्री ने उन्हें भी बेगैरत करके JDU से बाहर का रास्ता दिखाया. 2016 में नीतीश ने खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी ले ली. चूंकि शरद यादव 2014 में लोकसभा का चुनाव हार गए थे तो बाद में कुमार उन्हें राज्यसभा भेज दिया था. इसके बावजूद शरद अपने आप को बहुत कंफर्टेबल नहीं मान रहे थे. 2018 में शरद यादव JDU से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई. उस पार्टी का भी 2019 में RJD के साथ विलय कर लिया. वे RJD से चुनाव भी लड़े लेकिन हार गए.
नितीश कुमार की आँखों में कब से खटकने लगे थे आरसीपी सिंह
साल 2020 का था. चुनाव (Bihar Politics) में बेहतर प्रदर्शन नहीं होने पर पार्टी की कमान RCP सिंह को मिल गई. जब ये भी पार्टी को अपने मुताबिक चलाने लगे तो नीतीश कुमार को खटकने लगा. इसकी भी सिलसिलेवार कहानी है. कोरोना के समय पटना से नदारद रहना और खासकर अपने गांव में जाकर प्रवास करना, नीतीश को पसंद नहीं आया. इसके बाद 2019 के चुनाव के बाद जब उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल में अनुपात के हिसाब से जगह की मांग की तो ये भी खारिज हो गई.
तब उन्होंने फैसला लिया था कि वो मंत्रिमंडल में सांकेतिक भागीदारी भी नहीं करेंगे. हालांकि विधानसभा चुनाव में अपनी दुर्गति के बाद इससे समझौता करते हुए मंत्रिमंडल में आरसीपी सिंह को पद लेना पड़ा. CM यूपी सीटों के समझौते पर RCP के भाजपा के प्रति झुकाव से काफी निराश और गुस्से में थे. बिहार विधानसभा चुनाव में RCP के समर्थित अधिकांश उम्मीदवार पराजित हुए. बची-खुची कसर मंत्री बनने के बाद उन्होंने पहले राम मंदिर निर्माण में सार्वजनिक रूप से चंदा देकर कर दिया.
आवास भी छीन लिया गया
नीतीश कुमार ने भाजपा से नजदीकी होने की सजा ना केवल राज्यसभा के एक और टर्म से वंचित कर दिया. बल्कि उसके कारण केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफे की पटकथा भी लिख डाली. साथ ही लगे हाथ जिस बंगले में पिछले 12 वर्षों से पटना में RCP सिंह रहते थे. उसको भी मुख्य सचिव को आवंटित कर उन्होंने घर खाली करने के लिए मजबूर कर दिया. पिछले तीनों राष्ट्रीय अध्यक्षों में एक बात कॉमन रही है. सभी की दुर्गति राज्यसभा सदस्य रहते हुई है.
वर्तमान में जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान नितीश कुमार ने राजीव रंजन सिंह उर्फ़ ललन सिंह को दी है. हालाँकि इनके बाद ये कयास लगाये जा रहे है कि जेडीयू का अगला राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा हो सकते है.