One Nation One Election: केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाया है. केंद्रीय संसदीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने गुरुवार को एक्स पर पोस्ट में ये जानकारी दी. उन्होंने कहा कि संसद के विशेष सत्र में पांच बैठकें होंगी. इस बीच अटकलें लगाई जा रही हैं कि सरकार इस विशेष सत्र में एक देश एक चुनाव पर विधेयक ला सकती है.
इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में 73वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक देश एक चुनाव के अपने विचार को आगे बढ़ाया था. उन्होंने कहा था कि देश के एकीकरण की प्रक्रिया हमेशा चलती रहनी चाहिए. इसके बाद पीएम मोदी ने पीठासीन अधिकारियों के 80वें अखिल भारतीय सम्मेलन के समापन सत्र को संबोधित करते हुए भी इस पर विचार रखा था. आखिर क्या है एक देश एक चुनाव का प्रस्ताव? पहले कब उठा था यह मुद्दा? क्या पहले कभी एक साथ देश में चुनाव हुए हैं? इस पर चुनाव आयोग का क्या रुख है? आइये जानते हैं…
क्या है एक देश एक चुनाव की बहस?
One Nation One Election: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 के स्वतंत्रता दिवस पर एक देश एक चुनाव का जिक्र किया था. तब से अब तक कई मौकों पर भाजपा की ओर एक देश एक चुनाव की बात की जाती रही है. ये विचार इस पर आधारित है कि देश में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों. अभी लोकसभा यानी आम चुनाव और विधानसभा चुनाव पांच साल के अंतराल में होते हैं. इसकी व्यवस्था भारतीय संविधान में की गई है. अलग-अलग राज्यों की विधानसभा का कार्यकाल अलग-अलग समय पर पूरा होता है, उसी के हिसाब से उस राज्य में विधानसभा चुनाव होते हैं.
हालांकि, कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ होते हैं. इनमें अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम जैसे राज्य शामिल हैं. वहीं, राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम जैसे राज्यों के चुनाव आगामी लोकसभा चुनाव से ऐन पहले होंगे.
एक देश एक चुनाव की बहस की वजह क्या है?
दरअसल, एक देश एक चुनाव की बहस 2018 में विधि आयोग के एक मसौदा रिपोर्ट के बाद शुरू हुई थी. उस रिपोर्ट में आर्थिक वजहों को गिनाया गया था. आयोग का कहना था कि 2014 में लोकसभा चुनावों का खर्च और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों का खर्च लगभग समान रहा है। वहीं, साथ-साथ चुनाव होने पर यह खर्च 50:50 के अनुपात में बंट जाएगा.
सरकार को सौंपी अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में विधि आयोग का कहना था कि साल 1967 के बाद एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया बाधित हो गई. आयोग का कहना था कि आजादी के शुरुआती सालों में देश में एक पार्टी का राज था और क्षेत्रीय दल कमजोर थे. धीरे-धीरे अन्य दल मजबूत हुए कई राज्यों की सत्ता में आए. वहीं, संविधान की धारा 356 के प्रयोग ने भी एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया को बाधित किया. अब देश की राजनीति में बदलाव आ चुका है. कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की संख्या काफी बढ़ी है. वहीं, कई राज्यों में इनकी सरकार भी है.
One Nation One Election, लोकसभा-विधानसभा चुनावों का खर्च ‘एक समान’
आयोग के मुताबिक 2014 लोकसभा चुनावों में कुल 35 अरब 86 करोड़ 27 लाख रुपए खर्च हुए थे. अकेले हरियाणा में इस पर 29 करोड़ खर्च हुए. राज्य में जब छह महीने बाद विधानसभा चुनाव हुए तो इन पर 33 करोड़ 72 लाख खर्च आया. इसी तरह झारखंड में लोकसभा चुनाव के दौरान कुल 89 करोड़ 47 लाख रुपए का खर्च आया. चंद महीने बाद राज्य में हुए विधानसभा चुनावों में 86 करोड़ खर्च हुए. मध्यप्रदेश में लोकसभा चुनाव से चंद महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों में एक अरब 31 करोड़ का खर्च आया था. तीन महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश मे कुल एक अरब 99 करोड़ का खर्च हुए.
बार-बार चुनावों से चुनाव आयोग की जेब ढीली
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि 2019 में एक साथ चुनाव कराते हैं, तो तकरीबन 10 लाख पोलिंग बूथ बनाने होंगे और तकरीबन 13 लाख बैलेट यूनिट्स, 9.4 लाख कंट्रोल यूनिट्स और तकरीबन 12.3 लाख वीवीपैट मशीनों की जरूरत होगी. एक इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन की कीमत 33 हजार 200 रुपए पड़ती है. चुनाव आयोग का कहना था कि साथ चुनाव होते हैं तो अकेले ईवीएम पर ही 4 हजार 555 करोड़ रुपए खर्च होंगे.
जबकि एक ईवीएम की अधिकतम उम्र 15 साल ही होती है. तब आयोग ने कहा था कि ईवीएम के आज की कीमत के हिसाब से 2024 में दोबारा एक साथ चुनाव कराने पर 1751 करोड़ रुपए का खर्च आएगा, जबकि 2019 में यह बढ़ कर 2018 करोड़ रुपए हो जाएगा. वहीं 2034 में साथ चुनाव कराने पर नई ईवीएम खरीदने में 14 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे.
पहले कब-कब एक साथ चुनाव हुए?
One Nation One Election: आजादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए. तब लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी संपन्न हुए थे. इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी एक साथ लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराए गए. 1968-69 के बाद यह सिलसिला टूट गया, क्योंकि कुछ विधानसभाएं विभिन्न कारणों से भंग कर दी गई थीं.
एक राष्ट्र-एक चुनाव पर भाजपा प्रवक्ता गौरव भाटिया द्वारा आयोजित एक वेबिनार में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस एके सीकरी ने कहा था, ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव नई धारणा नहीं है. आजाद भारत के पहले चार आम चुनाव ऐसे ही हुए थे. जस्टिस सीकरी कहते हैं, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव प्रक्रिया में बदलाव 1960 से तब शुरू हुआ जब गैर कांग्रेस पार्टियों ने राज्य स्तर पर सरकारें बनाना शुरू किया. इसमें यूपी, बंगाल, पंजाब, हरियाणा शामिल थे. इसके बाद 1969 में कांग्रेस का बंटवारा और 1971 युद्ध के बाद मध्यावधि चुनाव हुए और इसके बाद विधानसभा चुनावों की तारीखें कभी आम चुनाव से नहीं मिलीं और अलग-अलग चुनाव शुरू हो गया.
कैसे पारित होगा ये प्रस्ताव?
राज्यसभा के पूर्व महासचिव देश दीपक शर्मा ने इस बारे में एक इंटरव्यू में बताया, ‘इस बारे में एक प्रक्रिया करनी होगी जिसमें संविधान संशोधन और राज्यों का अनुमोदन भी शामिल है. संसद में पहले जो विधेयक पारित कराए गए हैं, उनमें सरकार को दिक्कत नहीं आई है तो इसमें भी नहीं होगी. एक अड़चन बताई जाती है कि इसे लागू करने से पहले विधानसभाओं को भंग करना होगा. हालांकि, ऐसा नहीं है जब राज्यसभा का गठन हुआ था और उसमें बहुत से सदस्य आये थे तो सवाल उठा था कि उनका एक तिहाई-एक तिहाई करने इन्हें रिटायर कैसे किया जाए. इसमें जरूरी नहीं है कि उनका कार्यकाल घटाया जाए, ऐसा भी हो सकता है कि जिन राज्यों का समय पूरा नहीं हुआ है उनको अतिरिक्त समय दे दिया जाए.
अब सवाल उठता है कि राज्यों की विधानसभा भंग कैसे होगी? इसके दो जवाब हैं- पहला कि केंद्र राष्ट्रपति के जरिए राज्य में अनुच्छेद 356 लगाए. दूसरा यह है कि खुद संबंधित राज्यों की सरकारें ऐसा करने के लिए कहें.
इस पर चुनाव आयोग का क्या रुख है?
पिछले साल नवंबर में मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) राजीव कुमार ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर बड़ा बयान दिया था. उन्होंने कहा था कि चुनाव आयोग एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों को करा सकता है.
राजीव कुमार के मुताबिक, एक ही समय में संसदीय और राज्य विधानसभा चुनाव कराने का विषय चुनाव आयोग के दायरे में नहीं आता है. उन्होंने कहा कि इसमें निश्चित रूप से बहुत सारे रसद, बहुत सारे व्यवधान शामिल हैं, लेकिन यह कुछ ऐसा है जो विधायिकाओं को तय करना है. उन्होंने कहा था कि निश्चित रूप से अगर ऐसा किया जाता है, तो हमने अपनी स्थिति सरकार को बता दी है कि प्रशासनिक रूप से आयोग इसे संभाल सकता है.
एक देश एक चुनाव पर सरकार का क्या कहना है?
इस मामले पर शुक्रवार को पहली बार सरकार ने कोई प्रतिक्रिया दी. केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा कि फिलहाल एक कमेटी का गठन किया गया है. कमेटी की रिपोर्ट आएगी जिस पर चर्चा होगी. मंत्री ने कहा कि संसद परिपक्व है और चर्चा होगी, घबराने की जरूरत नहीं है. भारत को लोकतंत्र की जननी कहा जाता है, विकास हुआ है…मैं संसद के विशेष सत्र के एजेंडे पर चर्चा करूंगा.
वहीं अधिकारियों ने पीटीआई एजेंसी को बताया कि एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में कम से कम पांच संशोधन करने होंगे. इनमें संसद के सदनों की अवधि से संबंधित अनुच्छेद 83, राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा को भंग करने से संबंधित अनुच्छेद 85, राज्य विधानमंडलों की अवधि से संबंधित अनुच्छेद 172, राज्य विधानमंडलों के विघटन से संबंधित अनुच्छेद 174 और राज्यों में राष्ट्रपति शासन को लागू करने से संबंधित अनुच्छेद 356 शामिल हैं.
इसके साथ ही संविधान की संघीय विशेषता को ध्यान में सभी दलों की सहमति जरूरी होगी. वहीं यह भी अनिवार्य है कि सभी राज्य सरकारों की सहमति प्राप्त की जाए.