Murder in Mahim Review, जियो सिनेमा इन दिनों बदलाव के दौर से गुजर रहा है. कुछ बड़े विकेट गिर रहे हैं. कुछ नई टीमें नई पिच पर खेलने को तैयार हो रही हैं. और, बदलाव के इस दौर में इन दिनों जियो सिनेमा का वही हाल है जो कभी नेटफ्लिक्स का हुआ करता था. धर्मा प्रोडक्शंस की तमाम वो सामग्री जो कहीं और प्रसारित होने लायक भी नहीं थी, नेटफ्लिक्स के रास्ते दर्शकों को परोस दी गई. वैसे ही अपनी खुद की कंपनी वायाकॉम 18 की डिजिटल शाखा टिप्पिंग प्वाइंट की बनाई तमाम दोयम दर्जे की सीरीज जियो सिनेमा के जरिये दर्शकों के सामने आ रही हैं.
विजय राज और आशुतोष राणा जैसे कलाकारों को ओटीटी ने एक तरह का जीवनदान दिया है. किसी जमाने में हिंदी सिनेमा के हाशिये पर पहुंच चुके अभिनेता किसी कहानी में लीड रोल करते भी दिखाई देंगे, ये बस समय की बलिहारी है. और, समय की बलिहारी ही है कि साल 2024 में जियो सिनेमा के दर्शकों को एक ऐसी कहानी देखनी पड़ रही है जिसका मूल मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद कब का हाशिये पर जा चुका है. जेरी पिंटो के लिखे उपन्यास का आधार भारतीय दंड संहिता की धारा 377 है। उपन्यास जनवरी 2018 में प्रकाशित हुआ। उसी साल सितंबर में सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को खारिज कर दिया.
कालखंड की कहानी
वेब सीरीज ‘मर्डर इन माहिम’ (Murder in Mahim Review) उसके पहले के कालखंड की कहानी है। जैसा कि सीरीज का नाम है, कहानी मुंबई के माहिम रेलवे स्टेशन के शौचालय में हुए एक कत्ल से शुरू होती है. कातिल क्रूर है। आंतें बाहर निकालकर फेंक गया है. घर में अपने पिता से झगड़ कर फारिग ही हुए इंस्पेक्टर झेंडे को सूचना मिलती है. तफ्तीश शुरू होती है। साथ में एक युवती है। नई नई पुलिस में भर्ती हुई है.
दो दरोगा भी जय विजय की तरह कहानी में प्रकट होते रहते हैं. कहानी का दूसरा सिरा उस पूर्व पत्रकार से जाकर जुड़ता है, जिसे संदेह है कि कहीं उसका बेटा भी तो समलैंगिक नहीं है। कहानी पुरानी मुंबई की गलियों में घूमते फिरते बार बार उसी चौराहे पर आकर फूटती है, जहां इसका दम निकलता है.
निर्देशक विजय आचार्य की पूरी कोशिश
Murder in Mahim Review, सीरीज में न कलाकारों को किसी तरह का मोह अपनी अदाकारी से नजर आता है और न ही निर्देशक ने कहीं कोई कोशिश ऐसी की है जो सैकड़ों के भाव में ऐसी ही कहानियों पर बन चुके अपराध धारावाहिकों से इसे अलग कर सके. निर्देशक विजय आचार्य की पूरी कोशिश वेब सीरीज ‘मर्डर इन माहिम’ को जमीन से जोड़े रखने में है और इस चक्कर में उनकी टीम उन्हीं इलाकों में बार बार घूमती रहती है जिन इलाकों में मुंबई की चकाचौंध की बातें सुनकर इस शहर में आने वाला कभी नहीं जाना चाहता.
दृश्यों में घुली बदबू आप सीरीज देखते हुए सूंघने से लगते हैं. आठवें एपिसोड तक सीरीज को देखते रहना अपने आप में चुनौती है. उधर, सीरीज के किरदारों की चुनौती है अपने काम के साथ साथ अपने घर परिवार में चल रही दिक्कतों को सुलझाते रहने की. बहुत सधा सधाया फॉर्मूला बन चुका है ये ओटीटी पर प्रसारित होन वाली क्राइम वेब सीरीज का.
निर्देशक विजय आचार्य की पूरी कोशिश
वेब सीरीज ‘मर्डर इन माहिम’ सीरीज दिखाती कम है और बताती ज्यादा है. यहां तक जब झेंडे की सहकर्मी अपनी पसंद के बारे में खुलासा करती है तो इसका असर बनाने के लिए कहानी के दृश्य नहीं गढ़े जाते हैं, बल्कि संवादों से सारी बातें दर्शकों को बताई जाती है. कहानी बहुत सपाट है. पटकथा उससे ज्यादा हल्की और निर्देशन का तो खैर कहना ही क्या, जो आचार्य को मिला, उसे ही उन्होंने आगे पढ़ा दिया. अभिनय के मामले में इसमें कम से कम तीन कलाकार ऐसे हैं जिनके अभिनय के नए आयाम ये सीरीज खोल सकती थी.
आशुतोष राणा के किरदार का ग्राफ भी अच्छा है. उनके ‘ऑपरेशन’ से उनके ही दोस्त झेंडे के पिता की नौकरी चली गई. मामला संगीन होता देख दोनों दोस्त फिर साथ आते हैं. लेकिन, झेंडे पुलिस वाला है. वह अपने दोस्त पर भी शक कर सकता है. दोनों को मनमुटाव दूर करना होता है तो वो समुद्र के तट पर जाते हैं. और, कहीं क्यों नहीं बतिया सकते, इसके लेखक और निर्देशक ही जानें.
आशुतोष राणा का अभिनय
वातावरण का ऐसा ही विस्तार अगर इसकी कहानी को कहने में शुरू से किया गया होता तो ये अपने नाम को भी सार्थक कर सकती थी. नहीं तो सीरीज का नाम मर्डर इन जूही, मर्डर इन उन्नाव कुछ भी रख दो क्या फर्क पड़ता है. लेकिन आशुतोष राणा का अभिनय इस सीरीज का आधार तो नहीं ही बन पाता है, विजय राज का काम भी बहुत चलताऊ किस्म का है और सौ दफा लोग उनको यूं ही पिनपिनाते देख चुके हैं.
स्मिता तांबे और शिवाजी साटम जैसे कद्दावर कलाकारों का भी उपयोग इस कहानी में कायदे से नहीं हुआ है। शिवानी रघुवंशी से आने वाले दिनों की कुछ आशाएं जरूर बंधती हैं, लेकिन उनको अपने अभिनय में थोड़ा ठहराव लाना होगा.